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हाशिमपुरा तुम भारत से हार गए!

कुछ कहना है ©
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”हाशिमपुरा” , अचानक से चर्चा में आया यह शब्द मेरे लिए एकदम नया था। हो भी क्यों न नया? यह घटना तब की थी जब मैं पैदा भी नहीं हुआ था। जब तक मैं समझ पाता कि यह क्या बला है, उससे पहले ही अखबार , टीवी, सोशल मीडिया सब जगह हाशिमपुरा जंगल में लगी आग की तरह फैल गया।

जब इस हाशिमपुरा नामक आग के दरिया में थोड़ा करीब से झांक कर देखा तो पता चला कि इतिहास में कितना कुछ दफन है। बीते 28 सालों से मुर्दे की तरह दफन इस मामले के बारे में इससे पहले शायद मैनें कभी नहीं सुना था, या सुना भी होगा तो याद नहीं। आज इस हाशिमपुरा नरसंहार के 28 साल बीतने के बाद भी लपटें किसी को भी झुलसाने के लिए काफी हैं। दिल्ली से सटे मेरठ के हाशिमपुरा में 22 मई 1987 को पीएसी के जवानों ने मुस्लिम समुदाय के 42 लोगों की गोली मार कर हत्या कर दी थी। हुआ कुछ यूं था कि 1986 में तत्कालीन राजीव गांधी की सरकार ने अयोध्या के विवादित ढ़ांचे को खोलने का फैसला लिया था। जिसके बाद से ही उत्तर प्रदेश में रह-रह कर दंगे भड़कते रहे थे। धीरे-धीरे दंगों की आग मेरठ जिले तक पहुंची। 21 मई 1987 को मेरठ के हाशिमपुरा में एक युवक की हत्या कर दी गई। हत्या के बाद हाशिमपुरा जल उठा। कैसा जल उठा होगा? उस समय क्या हालात रहे होंगे? मुझे पता नहीं। जहां तक मैं अंदाजा लगा सकता हूं, शायद मुजफ्फर नगर दंगो की तरह या उससे भी अधिक भयावह हालात रहे होंगे। पूरा इलाका दंगे की चपेट में आ चुका था। गली-चौराहे की दुकानों को आग के हवाले किया जा चुका था। दंगा-फसाद चरम पर था।

22 मई, 1987 को जवानों से लदा पीएसी का एक ट्रक मस्जिद के सामने रुकता है। मस्जिद में धार्मिक सभा चल रही थी। ट्रक से भारी संख्या में जवान उतरते हैं और सभा में शामिल लोगों को हिरासत में ले लेते हैं। यह था इस घटना का पहला दृश्य दूसरा दृश्य इस नरसंहार के पीडि़त मोहम्मद उस्मान की जुबानी, ” उस्मान बताते हैं कि
हम घर पर थे। मैं, मेरे वालिद के साथ बैठा था। कुछ लोग तलाशी के बहाने से आए और हमें घर से बाहर निकाला। हमसे हाथ ऊपर करने को कहा गया और फिर हमें पीएसी के हवाले कर दिया गया। हमने देखा कि वहां बहुत सारे लोग पहले से बैठे हुए थे। शाम के समय सब को ट्रकों में भर के सिविल लाइन्स थाने भेजा गया। फिर उसके बाद करीब 50 मर्दों को छांट कर अलग किया गया। औरतों और बच्चों को एक तरफ कर दिया गया औरतों और बच्चों को छोडऩे को कह दिया था और हमें छांट कर एक तरफ खड़ा कर दिया गया।”

इसके बाद जो हुआ उसका बखान करने में शायद किसी का भी कलेजा कांप उठे। सूरज ढ़लने के बाद सभी को पीएसी की 41 बटालियन के एक ट्रक में लादा गया। सभी को ट्रक में बैठने के लिए कहा गया और पीएसी के जवान उनकी निगरानी के लिए खड़े रहे। पीएसी के इरादों से बेपरवाह वह सभी शून्य भाव होकर एक दूसरे का मुंह ताक रहे थे। उन बेचारों को क्या पता था कि यह उनकी जिंदगी का आखिरी सफर होगा। ट्रक को मुरादाबाद की गंग नहर की ओर ले जाया गया था। नहर के​ निकट एक जगह ट्रक को रोका गया। वहां एक व्यक्ति को नीचे उतारा गया और उसे गोली मार दी गई। और यह देख ट्रक में बैठे बाकी के लोग सहम गए। पीएसी के इरादों की भनक लगते ही उनमें से कुछ ने हिम्मत कर के ट्रक से कूद कर भागने की कोशिश की लेकिन जवानों ने उन्हें वहीं का वहीं छलनी कर दिया। इसके बाद सभी को नहर में फेंक दिया गया। इस घटना में 42 लोग मारे गए थे।

यह मामला 28 सालों से कोर्ट में था। समय के साथ इस मामले में भी धूल की परतें भी मोटी हो चुकी थी। न्याय का इंतजार करते-करते पीडि़तों के बाल सफेद हो गए थे। सालों बाद घटना की जांच रिपोर्ट सौंपी गई। मामला दर्ज हुआ। 161 गवाह बने और पीएसी के जवानों को आरोपी भी बनाया गया। 16 जवानों पर मुकदमा चला। 21 मार्च को अदालत ने फैसला सुनाया। लेकिन अदालत ने आरोपियों को सबूतों के अभाव का हवाला देते हुए बरी करने का हुक्म सुनाया। सालों से दफन हाशिमपुरा मामले में फैसला तो आ गया लेकिन जीत किसकी हुई? हाशिमपुरा पीडि़तों की या फिर खुद को कानून पर चलने वाले संविधानिक गणतंत्र कहने वाले भारत की?

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