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अगर समय रहते अरविंद केजरीवाल, कुमार विश्वास और किरन बेदी एक साथ खड़े होते निश्चित तौर पर दिल्ली की सबसे बड़ी ताकत के रूप में उभरते।
सनसनाती सर्दी में दिल्ली में सियासी सरगर्मियां तेज हैं। आरोप-प्रत्यारोप का दौर बदस्तूर जारी है। दिग्गज मैदान में है। चुनावी चकल्लस है, दुविधा का माहौल है। जनता खामोश है। अन्ना अवाक हैं।
एक बार फिर से दिल्ली में वही रौनक दिखाई दे रही है जिससे करीब सवा साल पहले दिल्ली की सड़कें गुलजार थी। बंद कमरों से सत्ता चलाने वाले नेता दिल्ली की गलियों में खाक छानते घूम रहे हैं। भविष्य के जनप्रतिनिधि जनता के बीच जमीनी टोह लेते फिर रहे हैं। आम तौर पर यह नजारा प्रत्येक चुनाव के पहले नजर आता है। लेकिन इस बार का दिल्ली चुनाव खास है। नतीजे दिलचस्प होंगे। जिसका लोगों का बेसब्री से इंतजार है। जी हां, कभी एक मंच से एक ही सुर बोलने वाले अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी आमने-सामने एक दूसरे को सीधी टक्कर दे रहे हैं। दिल्ली की राजनीति में पिछले दिनों एक नया नाम जुड़ा था। वह थी किरन बेदी। जनलोकपाल आंदोलन के समय टीम अन्ना के स्टार प्लेयर रहे केजरीवाल, किरण, और कुमार विश्वास पर लोगों की निगाहें टिकी हैं। दिल्ली के पिछले विधान सभा चुनावों में मुकाबला कांग्रेस बनाम आप का था। लेकिन इस बार मामला आप बनाम भाजपा न होकर किरण बनाम केजरीवाल का हो गया है। मुख्यमंत्री की कुर्सी के इन प्रबल दावेदारों की ईमानदारी व कर्तव्यनिष्ठा की चमक से जनता चकाचौंध है। वहीं कांग्रेस आउट ऑफ फ्रेम है।
अन्ना आंदोलन के बाद केजरीवाल ने नई राजनीतिक पार्टी का गठन किया था तो लोगों ने उनकी ओर सवालिया निशान खड़े किए थे । जब करीब दो साल पहले अन्ना के सफेदपोश मंचों से निकल कर के केजरीवाल ने बड़ा दांव खेला था। तब शायद अन्ना और उनकी टीम के लिए केजरीवाल उस शैतान बच्चे के समान थे जो घर के बड़ों की मर्जी के खिलाफ कोई काम शुरू करने जा रहा था। समय के साथ केजरी और अन्ना में राजनीतिक तल्खियां भी बढ़ीं। सबने केजरीवाल को महत्वाकांछी करार दे दिया। तब शायद अन्ना,बेदी और उनके सहयोगियों ने इस बात की क्षणिक कल्पना भी नहीं की होगी कि पार्टी गठन के महज साल भर के भीतर केजरीवाल दिल्ली की सत्ता पर काबिज हो जाएंगे। यहां तक कि विरोधियों ने आम आदमी पार्टी के अस्तित्व तक को चुनौती दे डाली थी। कुछ लोग तो यहां तक कयास लगा रहे थे कि तत्कालीन दिल्ली विधानसभा चुनावों के बाद आम आदमी पार्टी खत्म हो जाएगी। लेकिन केजरीवाल की कर्मठता और जुझारूपन को दिल्ली की जनता ने नजर अंदाज नहीं किया। विधान सभा चुनावों में अप्रत्याशित जीत हासिल करने के बाद आम आदमी पार्टी ने खुद को साबित कर न केवल विरोधियों व आलोचकों मुंह में करारा तमाचा मारा था बल्कि दिल्ली की सत्ता भी काबिज हुए थे। केजरीवाल ने भारतीय राजनीति के इतिहास में एक नया अध्याय लिखा था।
गौरतलब है कि जब केजरीवाल ने पार्टी बनाई थी उस समय अन्ना और बेदी राजनीति में जाने के खिलाफ थे। शायद पार्टी गठन के समय उन्होंने अन्ना और बेदी को अपने फैसले से सूचित भी कराया होगा। लेकिन शायद उस समय उनकी पहचान सिर्फ अन्ना के मंच से थी। वह मंच ही उनकी ताकत था। केजरीवाल के राजनीति में प्रवेश करने पर एक बारगी लोगों ने यह भी सोंचने से गुरेज नहीं किया होगा कि मंच त्यागते ही केजरीवाल तबाह हो जाएंगे। खुद किरण बेदी की भी यही सोच रही होगी। यही सोच कर उन्होंने आम आदमी पार्टी से दूरी बनाए रखी। लेकिन उनकी यह सोच ज्यादा दिनों तक काबिज नहीं रह सकी। लेकिन तब तक शायद बहुत देर हो चुकी थी। चेहरा चमकाने की जुगत में अन्ना मंच से जुड़े कई चेहरे आप की शरण में जा पहुंचे। उनमें से कुमार विश्वास भी एक प्रमुख चेहरा थे। इन चेहरों ने आम आदमी पार्टी को आम से खास बना डाला। धमाके दार जीत के साथ अप्रत्याशित सफलता हासिल थी। लेकिन अनुभव की कमी के आड़े दिल्ली में आप सरकार हनीमून पीरियड में ही नतमस्तक हो गई। अरविंद केजरीवाल ने 49 दिनों में ही इस्तीफा सौंप दिया। बड़ी जद्दोजहद के बाद चुनाव जीत कर आए आप के नेता इस फैसले से बौखला उठे। एक बार फिर से पार्टी टूट के कगार पर खड़ी हो गई थी। नेता बिचकने लगे थे। पद मोह के भूखे नेता सत्ता खोने के गम में उल्टे केजरीवाल पर ही अनाप-शनाप आरोपों की झड़ी लगानी शुरू कर दी थी। वक्त रहते केजरी वाल ने पार्टी को संभाला और एक बार फिर से चुनावों के लिए कमर कसनी शुरू की लेकिन इस बार वह अकेले मोर्चा संभाल रहे हैं। लेकिन संभलने के पहले ही किरण बेदी ने भाजपा ज्वाइन करके उनको करारा झटका दे दिया है। और तो और भाजपा ने उन्हे पार्टी ज्वाइन करने के महज पांच दिन के भीतर मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट कर केजरीवाल की धड़कने बढ़ा दी हैं। अन्ना आंदोलन के समय इन दोनों ने कभी सोंचा भी नहीं होगा कि उन दोनो आमने-सामने की भिड़त होगी। पार्टी आला कमान को दिल्ली भाजपा में केजरीवाल की टक्कर लेने लायक कोई चेहरा नहीं नजर आ रहा था। इसलिए भाजपा ने चट मंगनी पट ब्याह वाली हालत में अरविंद की काट के लिए उन्ही के कैडर का नेता चुना।
आप पार्टी की शुरूआत से ही कदम दर कदम केजरीवाल के साथ चलने वाले कुमार विश्वास आप के मंचों से नदारद दिख रहे हैं। इस बार उन्होंने चुनाव से दूरी भी बना रखी है। हालांकि कुमार विश्वास पहले ही यह बात कह कर धमाका कर चुके हैं कि उन्हे पद का लालच नहीं। उनके पास सीएम बनने के ऑफर आए थे। अगर सीएम बनना होता तो वह 19 मई को ही दिल्ली के सीएम बन जाते। शायद यह कह कर उन्होंने खुद के लिए गहरी खाई खोद ली। भाजपा की तरफ से किरण बेदी के सीएम प्रोजेक्ट होते ही कुमार विश्वास को यह बात न निगलते बन रही होगी न उगलते।
अन्ना आंदोलन के आत्मविश्वास से लबरेज यह तीन चेहरे लोगों में ऊर्जा प्रवाह करने का काम करते थे। अन्ना आंदोलन के यह तीन (क)- (कु)मार, (कि)रण और (के)जरीवाल का सफर एक साथ अन्ना के मंच से शुरू होता है। लेकिन मौजूदा समय में महज चार साल के भीतर तीन ताकतें रास्ते अलग-अलग रास्ते से एक ही दिशा में आगे बढ़ रही हैं। अगर समय रहते इन तीनों को यह बात समझ आ जाती तो दिल्ली में दोबारा चुनाव की नौबत न आती। लेकिन तब शायद हितों के टकराव की संभावना प्रबल हो जाती। इन सबसे दूर राजनीति को घटिया करार देते हुए अन्ना लोकपाल की रहा देख रहे होंगे। खैर जो भी अब मुकाबला दिलचस्प होगा।
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