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शाहिद आज़मी: एक गुमनाम मसीहा

कुछ कहना है ©
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शाहिद के बारे में काफी दिनों से सुन रहा था। सुनते सुनते मुझसे रहा नहीं गया और मेरे कदम खुद ब खुद सिनेमा हाॅल की तरफ बढ़े चले गए। इतने दिन टालमटोल करने के बाद आखिरकार आज हंसल मेहता की ‘‘शाहिद’’ देख डाली। फिल्म का पहला ही दृश्य दिल में छेद करने के लिए काफी है। वहीं से मुझे समझ आ गया कि आखिर क्यों शाहिद की शहीदी पिछले कुछ समय से चर्चा का विषय बनी हुई है।
मैं यहां पर कोई फिल्म की समीक्षा नहीं कर रहा। बल्कि उस शाहिद की कहानी के बारे में बताना चाह रहा हूं जो समय की पर्त में लिपटी हुआ गुमनामी के अंधेरे में कहीं किनारे पड़ी धूल खा रही थी। शाहिद चला गया लेकिन अपने पीछे काफी कुछ छोड़ गया। हंसल मेहता ने फिर दोबारा शाहिद आज़मी को जिंदा कर दिया। तमाम बेगुनाहों की आखिरी आस बन चुके शाहिद को 2010 में मौत के घाट उतार दिया गया था। 14 वर्ष की उम्र में 1992 में बाबरी मस्जि़द ढ़हाए जाने के दौरान दंगा फैलाने के केस में गलत फंसाए जाने से क्षुब्द्ध शाहिद ने पाकिस्तान जा कर हथियार चलाने का प्रशिक्षण भी लिया। वहां से लौटने के बाद उसे एक बार फिर सलाखों के पीछेे जाना पड़ता है। जेल में ही उसे आगे पढ़ने की ललक जाग उठती है। जेल से निकलने के बाद शाहिद वकील बनकर उसके जैसे तमाम बेगुनाहों को न्याय दिलाना उसका मकसद बन जाता है। दूसरों के हक के लिए लड़ते लड़ते वह खुद से हार जाता है। मात्र 33 वर्ष की उम्र में 11 फरवरी 2010 को उसके आॅफिस में ही उसकी गोली मार कर हत्या कर दी जाती है। वकील के रूप में अपने छह साल के कैरियर में उसने 17 बेगुुनाहों को बरी कराया। जिनमें से अधिकतर मुस्लिम युवक थे।
आज शाहिद पूरी दुनिया के सामने है भले ही वह हमारे बीच न हो। हकीकत यह है कि आज शाहिद का परिववार उस पर बनी फिल्म नहीं देखना चाहता, खासतौर पर उसकी अम्मी उसे दोबारा मरते हुए नहीं देखना चाहती और शायद हम सब भी……………..

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